73. प्रसेनजित् का कौतूहल : वैशाली की नगरवधू
देवी कलिंगसेना से वृद्ध महाराज प्रसेनजित् का विवाह निर्विघ्न सम्पन्न हो गया । देवी कलिंगसेना ने विरोध नहीं किया । सारे कार्य सुचारु रूप से हो गए। गान्धारराज ने ब्याह के यौतुक में बहुत - सा धन भेंट किया । किंकिणीजालमण्डित चार घोड़ों के ब्याह सारथी - सहित सौ रथ ,मथुरा की एक सहस्र बछड़ेवाली दुधारू गौएं , सुवर्णाभरण से अलंकृत वायुवेगी अजानीय सौ अश्व और वायुवेगी सौ खच्चर, स्नान - खान - पान और उत्सव के समय सेवा करने में शिक्षिता , गौरांगी, सुवेशिनी, सुकेशिनी , सुप्रभा , रत्नाभरणभूषिता, तरुणी , सुन्दरी सौ यवनी दासियां। बहुत - से सधे हुए बालीक देश के अश्व , बहुमूल्य प्रावार , कोषेय प्रावार, कोजव , क्षौम , क्षौममिश्रित कम्बल , शाण , भंग आदि विविध वस्त्र और स्वर्ण के रत्नजटित ढेर - के - ढेर आभूषण दिए । महाराज ने भी गान्धारजनों को दान - मान - सत्कार से विदाई दी । परन्तु यज्ञ की धूमधाम में महाराज को कलिंगसेना से मिलने का अवकाश ही नहीं मिला । बहुत चाहने पर भी न मिला ।
अधिकृत भेंट की क्रीता दासी के महल से अकस्मात् पलायन करने की सूचना महाराज के कानों में पहुंची। बहुत यत्न - खोज करने पर भी उस दासी के सम्बन्ध में कोई नहीं बता सका कि वह राजमहालय के प्रबल अवरोध में से कहां चली गई । तब महाराज को भी इसके सम्बन्ध में कौतूहल हुआ और महाराज यज्ञ में दीक्षित होने पर भी अनियमित रूप से एक दिन रात्रि को देवी कलिंगसेना के प्रासाद में पधारे । देवी कलिंगसेना ने अभ्युत्थानपूर्वक महाराज का सम्मान किया । यथोचित आसन पर बैठने पर महाराज ने कहा
“ शुभे कलिंग, कोसल के राजमहालय में तुम्हारा स्वागत करने मैं अब से प्रथम नहीं आ सका , इसका मुझे खेद है। ”
“ महाराज के अमात्यों , भृत्यों और राज पौर जानपद -सभी ने मेरा यथेष्ट स्वागत किया महाराज ! मैं इसके लिए आपकी कृतज्ञ हूं और इसलिए भी कि आपने मात्र मुझ संगण्य नारी ही से सन्तुष्ट होकर उत्तर गान्धार के लिए सुदूरपूर्व का वाणिज्य - द्वार खोल दिया । महाराज , आप जानते ही हैं , बिना सुदूरपूर्व के वाणिज्य के हमारा गान्धार जानपद जी ही नहीं सकता। ”
महाराज ने हंसकर कहा - “ पर यह कैसी बात सुश्री कलिंग, कि तुम इस राजनीति में अपने मूल्य का अंकन करती हो । ”
“ निस्सन्देह महाराज, वह कथनीय नहीं है। ”
“ न -न , कलिंग , ऐसा नहीं, मैं तुम्हें .... ” .
“ समझ गई, महाराज मुझे बहुत चाहते हैं । सुनकर कृतकृत्य हुई महाराज ! ”
“ परन्तु वह क्रीता दासी ? ”
“ भाग गई ? जाने दीजिए। महाराज के अन्तःपुर में दासियों और रानियों की गणना ही नहीं है, फिर न सही एक दासी। ”
“ पर , विभ्रव्य कहता है, वह असाधारण सुन्दरी थी । ”
“ थी तो महाराज ! आपके अन्तःपुर में वैसी एक भी नहीं है।
“ क्या तुम भी कलिंग ? ”
“ मैं भी महाराज! ”
“ पर तुमने तो उसे देखा ही नहीं। ”
“ देखा था महाराज! पलायन के समय में मैं उससे कोसल - राजवंश की ओर से क्षमा मांगने गई थी । ”
“ क्या कहती हो ? क्या उसका पलायन तुमको विदित है ? ”
“ मैंने ही उसे भगाया है महाराज ! ”
“ किसलिए ? ”
“ दुष्कर्म-निवारण के विचार से । ”
“ दुष्कर्म क्या था ? ”
“ यही कि उसे क्रीता दासी बनाया गया था । ”
“ यह तो अति साधारण है कलिंग! ”
“ दुर्भाग्य से यह अति असाधारण था महाराज ! ”
“ क्या इसमें कुछ रहस्य है ? ”
“ हां महाराज! ”
“ वह क्या ? ”
“ वह दासी चम्पा के महाराज दधिवाहन की पुत्री सुश्री चन्द्रभद्रा शीलचन्दना थीं । ”
“ अरे , चम्पा की राजकुमारी! ”
“ हां महाराज ! ”
“ वह यहां कैसे दासों में बिकने आई ? ”
“ कर्म-विपाक से महाराज ! ”
“ और तुम कहती हो , वह अनिन्द्य सुन्दरी थी । ”
“ हां महाराज ! ”
“ तो महाराज दधिवाहन मर चुके , उनका राज्य भी भ्रष्ट हो गया । फिर वह दासी जब मूल्य देकर क्रय कर ली गई, तब मेरा उस पर अधिकार हो गया । ”
“ यही सोचकर मैंने उसे भगा दिया महाराज ! ”
“ क्या गान्धार को ? ”
“ नहीं महाराज! ”
“ तब ? ”
“ अकथ्य है । ”
“ कहो कलिंग! ”
“ नहीं महाराज । ”
“ कहना होगा ! ”
“ नहीं महाराज। ”
“ तुमने अपराध किया है! ”
“ तो आप दण्ड दे सकते हैं । ”
“ तब इस पर विचार किया जाएगा। ”
महाराज क्रुद्ध होकर कलिंगसेना के प्रासाद से उठ गए ।